बाबरी विध्वंस : सालों से चली आ रही कश्माकश आज भी जारी है

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बाबरी विध्वंस विवाद को आज 26 वर्ष पूरे हो गये। 6 दिसंबर 1992 को आज ही के दिन भारत के इतिहास में एक ऐसा नाम दर्ज हुआ, जिसे शायद ही कोई भारतीय भूले। तब से लेकर चली आ रही कश्माकश आज भी जारी है। अयोध्या में बाबरी विध्वंस के रूप में काले साए की तरह छाए रहने वाले इस विवाद पर हाल ही में सुप्रीम कोर्ट में माथा-पची हुई। मामले को लेकर कोर्ट में डाली गई कई याचिकाओं पर सुनवाई हुई, लेकिन हल फिर भी नहीं निकला। अब सुप्रीम कोर्ट ने दस्तावेजों में कमी के कारण सुनवाई की तारीख आगे बढ़ा दी है। भले ही इसका इतिहास कुछ सालों पुराना माना जाता हो, लेकिन असम में इस विवाद की वजह सैकड़ों साल पुरानी है।

बाबरी विध्वंस विवाद को आज 26 वर्ष पूरे हो गये। 6 दिसंबर 1992 को आज ही के दिन भारत के इतिहास में एक ऐसा नाम दर्ज हुआ, जिसे शायद ही कोई भारतीय भूले। तब से लेकर चली आ रही कश्माकश आज भी जारी है। अयोध्या में बाबरी विध्वंस के रूप में काले साए की तरह छाए रहने वाले इस विवाद पर हाल ही में सुप्रीम कोर्ट में माथा-पची हुई। मामले को लेकर कोर्ट में डाली गई कई याचिकाओं पर सुनवाई हुई, लेकिन हल फिर भी नहीं निकला। अब सुप्रीम कोर्ट ने दस्तावेजों में कमी के कारण सुनवाई की तारीख आगे बढ़ा दी है। भले ही इसका इतिहास कुछ सालों पुराना माना जाता हो, लेकिन असम में इस विवाद की वजह सैकड़ों साल पुरानी है। जानिए आखिर कब से शुरू हुई बाबरी विवाद की कहानी।

ये है विवाद की पूरी कहानी –

  • 1528: अयोध्या में बाबर ने एक ऐसी जगह मस्जिद का निर्माण कराया, जिसे हिदू राम जन्म भूमि मानते हैं।
  • 1853: हिदुओं का आरोप- मंदिर तोड़कर मस्जिद बनाई गई। पहला हिदू-मुस्लिम संघर्ष हुआ।
  • 1859: ब्रिटिश सरकार ने विवादित भूमि को बांटकर आंतरिक और बाहरी परिसर बनाए।
  • 1885: राम के नाम पर इस साल कानूनी लड़ाई शुरू हुई। महंत रघुबर दास ने राम मंदिर निर्माण के लिए इजाजत मांगी।
  • 1949: 23 दिसंबर को लगभग 5० हिदुओं ने मस्जिद के केंद्रीय स्थल में भगवान राम की मूर्ति रखी।
  • 195०: 16 जनवरी को एक अपील में मूर्ति को विवादित स्थल से हटाने से न्यायिक रोक की मांग।
  • 195०: 5 दिसंबर को मस्जिद को ढांचा नाम दिया गया और राममूर्ति रखने के लिए केस किया।
  • 1959: 17 दिसंबर को निर्मोही अखाड़ा विवाद में कूदा, विवादित स्थल के लिए मुकदमा दायर।
  • 1961: 18 दिसंबर को सुन्नी वक्फ बोर्ड ने मालिकाना हक के लिए केस किया।
  • 6 दिसम्बर 1992 : कार सेवकों द्बारा बाबरी मस्जिद के ढांचे को तोड़ा गया।

6 दिसम्बर का यह दिन हर बार उस ‘9० के दशक के शुरुआती सालों की यादों को ताजा कर देता है, जब ‘जय श्री राम’ के नारों से ‘हेल हिटलर’ की अनुगूंज सुनाई देती थी। विश्व हिन्दू परिषद (विहिप) की धर्म-संसद भारत के संविधान को रद्दी की टोकरी में डाल कर धर्म-आधारित राज्य का एक नया संविधान तैयार करने के प्रस्ताव पारित कर रही थी। कई साल पहले इसी दिन संघ परिवार की छल-कपट की राजनीति का एक चरम रूप सामने आया था और निकम्मी केंद्रीय कांग्रेस सरकार को धत्ता बताते हुए कार सेवक नामधारी भीड़ से बाबरी मस्जिद को उसी प्रकार गिरवा दिया गया, जिस प्रकार कभी जहरीले सांप्रदायिक प्रचार से उन्मादित नाथूराम गोडसे के जरिये महात्मा गांधी की हत्या करायी गयी थी।

6 दिसम्बर 1992 की घटना से सारा देश सन्न रह गया था। अनेक पढ़े-लिखे, सोचने-समझने वाले लोग भी जैसे किकर्तव्य-विमूढ़ हो गए थे। आधुनिक भारत में एक संगठित भीड़ की बर्बरता का ऐसा डरावना अनुभव इसके पहले कभी नहीं हुआ था। बाबरी मस्जिद-राम जन्मभूमि विवाद का यह मुद्दा वैसे तो लम्बे अर्से से बना हुआ है। पिछले चार वर्षों से इस पर खासी उत्तेजना रही है। खास तौर पर विश्व हिन्दू परिषद और बजरंग दल नामक संगठन इस पर लगातार अभियान चलाते रहे हैं। दूसरी ओर से बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी भी किसी-न-किसी रूप में लगी हुई थी।

सर्वोपरि, भारतीय जनता पार्टी ने इसे अपना सबसे बड़ा चुनावी मुद्दा बना रखा था, तथा उसके सर्वोच्च नेता इन अभियानों में अपनी पूरी शक्ति के साथ उतरे हुए थे। उनके इन अभियानों से फैली उत्तेजना से देश भर में भयानक साम्प्रदायिक दंगे भी हुए, जिनमें अब तक हजारों लोगों की जानें जा चुकी हैं। इसके पहले 1989 में राष्ट्रीय मोर्चा सरकार के शासनकाल में भी कार सेवकों ने इस विवादित ढांचे पर धावा बोला था। उस समय भी भारी उत्तेजना पैदा हुई थी, जिसमें पुलिस को ढांचे की रक्षा के लिए गोली चलानी पड़ी थी।

ऐसे तमाम हिसक अभियानों के बाद भी चूंकि वहां बाबरी मस्जिद सुरक्षित रही, इसीलिए भारत की जनता का बड़ा हिस्सा काफी कुछ आश्वस्त सा हो गया था, हर थोड़े समय के अन्तराल पर भाजपा के नए-नए अभियानों-कभी शिलापूजन, तो कभी पादुका पूजन आदि-से लोगों के चेहरों पर शिकन तो आती थी, लेकिन भारत में अवसरवादी राजनीति के अनेक भद्दे खेलों को देखने का अभ्यस्त हो चुके भारतीय जनमानस ने साम्प्रदायिक उत्तेजना के इन उभारों को भी वोट की क्षुद्र राजनीति का एक अभि अंग समझकर इन्हें एक हद तक जैसे पचा लिया था, सपने में भी उसे यह यकीन नहीं हो रहा था कि यह प्रक्रिया पूरे भारतीय समाज के ऐसे चरम बर्बरीकरण का रूप ले लेगी। यही वजह रही कि छह दिसम्बर की घटनाओं से उसे भारी धक्का लगा। साम्प्रदायिक घृणा के प्रचार के लंबे-लंबे अभियानों का साक्षी होने के बावजूद एक बार के लिए पूरा राष्ट्र सकते में आ गया।

सिर्फ केन्द्रीय सरकार ने ही बाबरी मस्जिद को ढहाए जाने की उस घटना को चरम विश्वासघात नहीं कहा, देश के तमाम अखबारों, बुद्धिजीवियों, सभी गैर-भाजपा राजनीतिक पार्टियों और आम-फहम लोगों तक ने इसे देश के साथ किया गया एक अकल्पनीय धोखा बताया। अयोध्या में कार सेवक नामाधरी भीड़ ने एक विवादित ढांचे को नहीं गिराया था, पूरे राष्ट्र को एक अन्तहीन गृहयुद्ध में धकेल देने का बिगुल बजाया था। राष्ट्र इस कल्पना से सिहर उठा था कि अब तो सार्वजनिक जीवन से हर प्रकार की मर्यादाओं के अन्त की घड़ी आ गई है।

सिर्फ राजनीतिक, संवैधानिक और धार्मिक ही नहीं, सभ्यता और संस्कृति की मर्यादाएं भी रहेंगी या नहीं, पूरा समाज इस आशंका से संत्रस्त हो गया था। लोगों की नजरों के सामने प्राचीनतम सभ्यता वाले भारत का भावी चित्र एक-दूसरे के खून के प्यासे, बिखरे हुए अनगिनत बर्बर कबीलों वाले भूखंड के रूप में कौंध गया था। यही वजह थी कि 6 दिसम्बर के तत्काल बाद भारत के किसी अखबार ने साम्प्रदायिक उत्तेजना और बर्बरता को बढ़ावा देने वाली वैसी भूमिका अदा नहीं की, जैसी कि दैनिक अखबारों के एक हिस्से ने 3० अक्टूबर, 199० की घटनाओं के वक्त अदा की थी जब बाबरी मस्जिद पर पहला हमला किया गया था।

राकेश कुमार पाण्डेय (प्रधान सम्पादक, कैनविज टाइम्स ) 

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